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पञ्चदश सर्ग

वैसी ही है सकल दल मे श्यामता दृष्टि आती ।
तू वैसी ही अधिकतर है वेलियो - मध्य फूली ।
क्यो पाती हूँ न अब तुझमे चारुता पूर्व जैसी ।
क्यो है तेरी यह गत हुई क्या न देगी बता तू ॥११॥

मैं पाती हूँ अधिक तुझमें क्यो कई एक चाते ।
क्या देती है व्यथित कर क्यो वेदना है बढ़ाती ।
क्यों होता है न दुख तुझको वंचना देख मेरी ।
क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी ।।१२।।

हो - हो पूरी चकित सुनती वेदना है हमारी ।
या तू खोले वदन हॅसती है दशा देख मेरी ।
मै तो तेरा सुमुखि! इतना मर्म भी हूँ न पाती ।
क्या आशा है अपर तुझसे है निराशामयी तू ॥१३॥

जो होता है सुखित, उसको अन्य की वेदनाये ।
क्या होती है विदित वह जो मुक्त - भोगी न होवे ।
तू फूली है हरित - दल मे बैठ के सोहती है ।
क्या जानेगी मलिन बनते पुष्प की यातनाये ॥१४॥

तू कोरी है न, कुछ तुझ मे प्यार का रंग भी है ।
क्या देखेगी न फिर मुझको प्यार की ऑख से तू ।
मै पूलूंगी भगिनी! तुझसे आज दो - एक बाते ।
तू क्या हो के सदय वतला ऐ चमेली न देगी ।।१५।।

थोड़ी लाली पुलकित - करी पंखड़ी - मध्य जो है ।
क्या सो वृन्दा-विपिन-पति की प्रीति की व्यंजिका है ।
जो है तो तू सरस - रसना खोल ले औ बता दे ।
क्या तू भी है प्रिय-गमन से यो महा - शोक-मग्ना ॥१६॥