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प्रियप्रवास

क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।
क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।
तू ने की है सुमुखि ! अलि का कौन सा दोप ऐसा।
जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है ।।२९॥

सर्वागों मे सरस - रज औ धूलियो को लपेटे।
आ पुष्पो मे स - विधि करता गर्भ - आधान जो है।
जो ज्ञाता है मधुर - रस का मंजु जो गूॅजता है।
ऐसे प्यारे रसिक - अलि से तू असम्मानिता है ॥३०।।

जो आँखों मे मधूर - छवि की मूर्ति सी ऑकता है।
जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका - शशी है।
जो वंशी के सरस - स्वर से है सुधा सी बहाता ।
ऐसे माधो- विरह - दव से मै महादग्धिता हूँ ॥३१॥

मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनाये कई है।
आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।
जो रोती है दिवस - रजनी दोष जाने बिना ही।
ऐसी भी है अवनि - तल मे जन्म लेती अनेको ॥३२॥

मैने देखा अवनि - तल मे श्वेत ही रंग ऐसा।
जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।
तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखी।
क्या त मेरे हृदय तल के रंग मे भी रॅगेगा ॥३३।।

क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते है।
त कैसा है रुचिर लगता पत्तियो - मध्य फूला व।
तो भी कैसी व्यथित - कर है सो कली हाय! होती।
हो जाती है विधि - कुमति से म्लान फूले बिना जो ॥३४॥