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प्रियप्रवास

मैने देखा अधिकतर है भृंग आ पास तेरे ।
अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है ।
आ जाती है द्दग - युगल में अंधता धूलि - द्वारा ।
कॉटो से है उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते ॥४१॥

क्यो होती है अहह इतनी यातना प्रेमिको की ।
क्यो वाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता ।
जो प्यारा औ रुचिर - विटपी जीवनोद्यान का है ।
सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटको से भरा है ॥४२॥

पूरा रागी हृदय - तल है पुष्प बन्धूक तेरा ।
मर्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है ।
तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती ।
पूरा - पूरा दिवस - पति के प्रेम मे तू पगा है ।।४३।।

तेरे जैसे प्रणय - पथ के पान्थ उत्पन्न हो के ।
प्रेमी की है प्रकट करते पक्कता मेदनी मे ।
मै पाती हूँ परम - सुख जो देख लेती तुझे हूँ ।
क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा, ॥४४॥

मैं गोरी हूँ कुँवर - वर की कान्ति है मेघ की सी ।
कैसे मेरा, महर - सुत का, भेद निर्मूल होगा ।
जैसे तू है परम - प्रिय के रंग मे पुष्प डूबा ।
सेकै वैसे जलद - तन के रंग मे मै रंगूंगी ॥४५॥

पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियो का ।
मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ ।
मै पाऊँगी हृदय - तल मे उत्तमा - शांति कैसे ।
जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही मे ।।४६।।