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पञ्चदश सर्ग

‘ऐसी, हो के कुसुम तुझमे प्रेम की पकता है ।
मै हो के भी मनुज - कुल की, न्यूनता से भरी हूँ ।
कैसी लज्जा परम दुख की बात मेरे लिये है ।
छा जावेगा न प्रियतम का रंग सौग मे जो ॥४७॥

वंशस्थ छंद
खिला हुआ सुन्दर - वेलि - अंक मे ।
मुझे बता श्याम- घटा प्रसून तू ।
तुझे मिली क्यो किस पूर्व - पुण्य से ।
अतीव - प्यारी - कमनीय - श्यामता ॥४८॥

हरीतिमा वृन्त समीप की भली ।
मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता ।
लसी हुई श्यामलताग्रभाग मे ।
नितान्त है दृष्टि विनोद - वर्द्धिनी ॥४९।।

परन्तु तेरा बहु · रंग देख के ।
अतीव होती उर - मध्य है व्यथा ।
अपूर्व होता भव मे प्रसून तू ।
निमग्न होता यदि श्याम - रंग मे ॥५०॥

तथापि त अल्प न भाग्यवान है ।
चढ़ा हुआ है कुछ श्याम - रंग तो ।
अभागिनी है वह, श्यामता नही-
विराजती है जिसके शरीर में ॥५१।।

न स्वल्प, होती तुझमे सुगंधि है ।
तथापि सम्मानित सर्व - काल मे ।
तुझे रखेगा ब्रज - लोक दृष्टि में ।
प्रसूना तेरी यह श्यामलांगता ॥५२॥