पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३०

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दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन ।
जा कहो कोई मुहम्मद शाह सो ।।

इन दोनो के उपरान्त ही शाह मुवारक का समय है, उसकी कविता का ढग यह है——

मत कह्न सेती हाथ में ले दिल हमारे को ।
जलता है क्यो पकड़ता है जालिम अॅगारे को ।।

ऊपर की कविताओ से प्रकट है कि पहले मुसलमान कवियो ने जो रचना की है उसमे या तो हिन्दी-पदो और शब्दो को बिल्कुल फारसी पदो या शब्दों से अलग रखा है, या फारसी या अरबी शब्दों को मिलाया है तो बहुत ही कम, अधिकांश हिन्दी-शब्दों से ही काम लिया है, किन्तु आगे चल कर समय ने पलटा खाया और निम्नलिखित प्रकार की कविता होने लगी——

नूर पैदा है जमाले यार के साया तले ।
गुल है शरमिन्दा रुखे दिलदार के साया तले ।।

——नासिख

आफतावे हश्र है या रब कि निकला गर्म गर्म ।
कोई ऑसू दिलजलो के दीदये गमनाक से ।।
न लौह गोर पै मस्तो के हो न हो तावीज ।
जो हो तो खिश्ते खुमे मै कोई निशॉ के लिये ।।

——जौक

खमोशी में निहाँ खूंँगश्ता लाखो आरजूये हैं ।
चिरागे मुर्दा हूँ मै बेजबॉ गोरे गरीबों का ।।
नक्श नाज़े बुतेतन्नाज ब आगोश रकीब ।
पायताऊस पये जामये मानी माँगे ।
यह तूफागाह जोशेइजतिरावे शाम तनहाई ।