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पञ्चश सर्ग

स्वर फुॅका तव है किस मंत्र से ।
सुन जिसे परमाकुल मत्त हो ।
सदन है तजती ब्रज - बालिका ।
उमगती, ठगती, अनुरागती ।।८३।।

तव प्रवंचित है बन छानती ।
विवश सी नवला ब्रज - कामिनी ।
युग विलोचन से जल मोचती ।
ललकती, कॅपती, अवलोकती ।।८४।।

यदि बजी फिर, तो वज ऐ प्रिये ।
अपर है तुझ सी न मनोहरा ।
पर कृपा कर के कर दूर तू ।
कुटिलता, कटुता, मदशालिता ‌‌।।८५।।

विपुल छिद्र - वती बन के तुझे ।
यदि समादर का अनुराग है ।
तज न तो अयि गौरव - शालिनी।
सरलता, शुचिता, कुल - शीलता ।।८६।।

लसित है कर में प्रज - दब के ।
मुरलिके तप के बल आज तू ।
इस लिये अवलाजन को वृधा।
मत सत्ता, न जता मति-हीनता ।।८७।।

वंगस्थ छन्द

मदीय प्यारी ‘प्रयि कुंज•कोकिला ।
मुझे बता तू ढिग कृक क्यों उठी ।
विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी ।
विपादिता, संकुचिता. निपीड़िता ॥४८॥