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प्रियप्रवास

प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की ।
भला नहीं तो ब्रज - मध्य श्याम की ।
कभी बजेगी अब क्यो सु - बॉसुरी ।
सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी ।।८९।।

विषादिता त यदि कोकिला बनी ।
विलोक मेरी गति तो कहीं न जा ।
समीप बैठी सुन गूढ़ - वेदना ।
कुसंगजा, मानसजा, मदंगजा ॥१०॥

यथैव हो पालित काक - अंक मे ।
त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय है ।
तथैव माधो यदु-वंश मे मिले ।
अशोभना, खिन्न मना मुझे बना ॥११॥

तथापि होती उतनी न वेदना ।
न श्याम को जो ब्रज - भूमि भूलती ।
नितान्त ही है दुखदा, कपाल की ।
कुशीलता, आविलता, करालता ॥९२॥

कभी न होगी मथुरा - प्रवासिनी ।
गरीबिनी गोकुल - ग्राम - गोपिका ।
भला करे लेकर राज - भोग क्या ।
यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता ।।१३।।

जहाँ न वृन्दावन है विराजता ।
जहाँ नही है ब्रज - भ मनाहरा ।
न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नही ।
प्रवाहिता भानु - सुता प्रफुल्लिता ।।९४॥