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पञ्चदश सर्ग

करील है कामद कल्प - वृक्ष से ।
गवादि हैं काम - दुधा गरीयसी ।
सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा। ।
महामना, श्यामघना लुभावना ।।९५।।

जहाँ न वंशी - वट है न कुंज है ।
जहाँ न केकी-पिक है न शारिका ।
न चाह वैकुण्ठ रखे, न है जहाँ ।
बड़ी भली. गोप - लली, समाअली ॥९६॥

न कामुका हैं हम राज - वेश की ।
न नाम प्यारा यदु - नाथ है हमे ।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की ।
विगगिनी, पागलिनी, वियोगिनी ॥९७॥

विरक्ति बाते सुन वंदना - भरी ।
पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही ।
बना रहा है तव बोलना मुझे ।
व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी ॥९८॥

नही - नहीं है मुझको बता रही ।
नितान्त तेरे स्वर की अधीरता ।
वियोग से है प्रिय के तुझे मिली ।
अवांछिता, कातरता, मलीनता ॥९९।।
 
'प्रत' प्रिये न मथुग तुरन्त जा ।
सुना स्व- वेधी स्वर जीविनेश को ।
अभिज्ञ वे हो जिससे वियोग की ।
कठोरता, व्यापकता, गंभीरता ।।१००।।