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प्रियप्रवास

कल - मुरलि - निनादी लोभनीयांग - शोभी।
अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तली कांति-शाली।
अयि पुलकित अंके आज भी क्यो न आया।
वह कलित - कपोलो कान्त आलापवाला ॥११३।।

अब अप्रिय हुआ है क्यो उसे गेह आना।
प्रति - दिन जिसकी ही ओर ऑखें लगी है।
पल - पल जिस प्यारे के लिये हूँ बिछाती।
पुलकित - पलकों के पाँवड़े प्यार - द्वारा ॥११४॥

मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।
निज उर वह क्यो है संग जैसा बनाता।
विलसित जिसमे है चारु - चिन्ता उसीकी।
वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता ॥११५॥

जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैने।
वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।
जिस कुँवर बिना है याम होते युगो से।
वह छवि दिखलाता क्यो नही लोचनों को ॥११६॥

सब तज हमने है एक पाया जिसे ही ।
अयि अलि ! उसने है क्या हमे त्याग पाया ।
हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती है ।
वह प्रिय न हमारी ओर क्यो ताक पाया ॥११७।।
 
विलसित उर मे है जो सदा देवता सा ।
वह निज उर में है ठौर भी क्यो न देता ।
नित वह कलपाता है मुझे कान्त हो क्यो ।
जिस बिन ‘कल, पाते हैं नहीं प्राण मेरे ॥११८।।