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पञ्चदश सर्ग

मम दृग जिसके ही रूप मे है रमे से ।
अहह वह उन्हे है निममो सा रुलाता ।
यह मन जिनके ही प्रेम मे मग्न सा है ।
वह मद उसको क्यो मोह का है पिलाता ॥११९।।

जब अब अपने ए अंग ही है न आली ।
तब प्रियतम मे मै क्या करूँ तर्कनाये ।
जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती ।
तब कुछ कहना ही कान्त को अज्ञता है ॥१२०॥

दृग अति अनुरागी श्यामली - मूर्ति के है ।
युग श्रुति सुनना है चाहते चारु - ताने ।
प्रियतम मिलने की चौगुनी लालसा से ।
प्रति - पल अधिकाती चित्त की आतुरी है ॥१२१॥

उर विदलित होता मत्तता वृद्धि पाती ।
वह विलख न जो मैं यामिनी - मध्य रोती ।
विरह - दव सताता, गात सारा. जलाता ।
यदि मम नयनों मे वारि - धारा न होती ॥१२२॥

कब तक मन मारूँ दग्ध हो जी जलाऊँ ।
निज- मृदुल-कलेजे में शिला क्यो लगाऊँ ।
वन - वन विलपूॅ या मै धॅसूॅ मेदिनी मे ।
निज - प्रियतम प्यारी मूर्ति क्यो देख पाऊँ ।।१२३।।

तब तट पर आ के नित्य ही कान्त मेरे ।
पुलकित बन भावो मे पगे घूमते है ।
यक दिन उनको पा प्रीत जी से सुनाना ।
कल - कल - ध्वनि - द्वारा सर्वे मेरी व्यथाये ॥१२४॥