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प्रियप्रवास

वसंत की भाव - भरी विभूति सी ।
मनोज की मंजुल - पीठिका - समा ।
लसी कही थी सरसा सरोजिनी ।
कुमोदिनी - मानस - मोदिनी कही ।।५।।

नवांकुरो मे कलिका - कलाप मे ।
नितान्त न्यारे फल पत्र - पुंज मे ।
निसर्ग - द्वारा सु प्रसूत - पुष्प में ।
प्रभूत पुंजी - कृत थी प्रफुल्लता ॥६॥

विमुग्धता की वर - रंग - भूमि सी ।
प्रलुब्धता केलि वसुंधरोपमा ।
मनोहरा थीं तरु - वृन्द - डालियाँ ।
नई कली मंजुल - मंजरीमयी ॥७॥

अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा ।
महत्व औ गौरव, सत्य - त्याग का ।
विचित्रता से करती प्रकाश थी ।
स - पत्रता पादप पत्र - हीन की ।।८।।

वसंत - माधुर्य - विकाश - वर्धिनी ।
क्रिया - मयी मार - महोत्सवांकिता ।
सु - कोपले थी तरु - अंक मे लसी ।
स - अंगरागा अनुराग - रंजिता ॥९॥

नये - नये पल्लववान पेड़ में ।
प्रसून मे आगत थी अपूर्वता ।
वसंत मे थी अधिकांश शोभिता ।
विकाशिता - वेलि प्रफुल्लिता - लता ।।१०।।