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प्रियप्रवास

द्दगो उरो को दहती अतीव थी।
शिखाग्नि-तुल्या तरु - पुंज - कोपले।
अनार - शाखा कचनार - डाल थी।
अपार अंगारक पुंज - पूरिता ॥१७॥

नितान्त ही थी प्रतिकूलता - मयी।
प्रियाल की प्रीति - निकेत - मंजरी।
बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।
विदारता था तरु कोविदार का ।।१८।।

भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।
सशंकता - मूर्ति प्रमोद - नाशिनी।
अतीव थी 'रक्तमयी अशोभना।
पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा ।।१९।।

इतस्तत. भ्रान्त - समान घूमती।
प्रतीत होती अवली. मिलिन्द की।
विदूषिता हो कर थी कलंकिता।
अलंकृता कोकिल कान्त कंठता ।।२०।।

प्रसून की मोहकता मनोज्ञता।
नितान्त · थी। अन्यमनस्कतामयी।
न वांछिता थी न विनोदनीय थी।
अ- मानिता हो मलयानिल - क्रिया ॥२१॥

बड़े यशस्वी वृषभानु गेह के।
समीप थी एक विचित्र वाटिका।
प्रबुद्ध ऊधो इसमे इन्ही दिनो।
प्रबोध देने ब्रज - देवि को गये ॥२२॥