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षोड़श सर्ग

स-प्रीति वे आदर के लिये उठी ।
विलोक आया,ब्रज-देव-वन्धु को ।
पुनः उन्होने निज- शान्त-कुंज मे ।
उन्हे बिठाया अति-भक्ति - भाव से ॥३५।।

अतीव - सम्मान समेत आदि मे ।
ब्रजेश्वरी की कुशलादि पूछ के ।
पुनः सुधी - ऊधव ने स - नम्रता ।
कहा संदेसा यह श्याम - मूर्ति का ॥३६।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
प्राणधारे परम - सरले प्रेम की मूर्ति राधे ।
निर्माता ने पृथक तुमसे यो किया क्यो मुझे है ।
प्यारी आशा प्रिय - मिलन की नित्य है दूर होती ।
कैसे ऐसे कठिन - पथ का पान्थ मै हो रहा हूँ ॥३७॥

जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये है ।
क्यो धाता ने विलग उनके गात को यो किया है ।
कैसे आ के गुरु - गिरि पड़े बीच में है उन्हींके ।
जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यशः थे ॥३८॥

उत्कण्ठा के विवश नभ को, भूमि को, पादपो को ।
ताराओ को, मनुज - मुख को प्रायश. देखता हूँ ।
प्यारी! ऐसी न ध्वनि मुझको है कही भी सुनाती ।
जो चिन्ता से चलित - चित की शान्ति का हेतु होवे ॥३९॥

जाना जाता मरम विधि के बंधनो का नहीं है ।
तो भी होगा उचित चित मे यो प्रिये सोच लेना ।
होते जाते विफल यदि हैं सर्व- संयोग सूत्र ।
तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई ॥४०॥