पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३१५

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प्रियप्रवास

है प्यारो औ मधर सुख औ भोग की लालसाये ।
कान्ते, लिप्सा जगत - हित की और भी है मनोज्ञा ।
इच्छा आत्मा परम - हित की मुक्ति की उत्तमा है ।
वांछा होती विशद उससे आत्म - उत्सर्ग की है ।।४१।।

जो होता है निरत तप मे मुक्ति की कामना से ।
आत्मार्थी है, न कह सकते है उसे आत्मत्यागी ।
जी से प्यारा जगत - हित औ लोक - सेवा जिसे है ।
प्यारी सच्चा अवनि - तल मे आत्मत्यागी वही है ।।४२।।

जो पृथ्वी के विपुल - सुख की माधुरी है विपाशा ‌।
प्राणी - सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है ।
जो आद्या है नखत द्युति सी व्याप जाती उरो मे ।
तो होती है लसित उसमे कौमुदी सी द्वितीया ।।४३।।

भोगो मे भी विविध कितनी रंजिनी - शक्तियाँ है ।
वे तो भी हैं जगत - हित से मुग्धकारी न होते ।
सच्ची यो है कलुप उनमे है बड़े क्लान्तिकारी ।
पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा है ‌‌।।४४।।

है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा ।
सारे प्राणी स - रुचि इसकी माधुरी मे बँधे हैं ।
जो होता है न वश इसके आत्म - उत्सर्ग - द्वारा ।
ऐ कान्ते है सफल अवनी - मध्य आना उसीका ॥४५।।

जो है भावी परम - प्रबला देव - इच्छा प्रधाना ।
तो होवेगा उचित न, दुखी वांछितो. हेतु होना ।
श्रेयःकारी सतत दयिते सात्विकी - कार्य होगा ।
जो हो स्वार्थोपरत भव मे सर्व - भूतोपकारी ॥४६॥