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प्रियप्रवास

पूरा - पूरा परम - प्रिय का मर्म मै बूझती हूँ ।
है जो वांछा विशद उर मे जानती भी उसे हूँ ।
यत्नो द्वारा प्रति -दिन अतः मै महा संयता हूँ ।
तो भी देती विरह - जनिता - वासनाये व्यथा है ॥५३॥

जो मै कोई विहग उड़ता देखती व्योम मे हूँ ।
तो उत्कण्ठा - विवश चित मे आज भी सोचती हूँ ।
होते मेरे अबल तन मे पक्ष जो पक्षियो से ।
तो यों ही मै स - मुद उड़ती श्याम के पास जाती ॥५४॥

जो उत्कण्ठा अधिक प्रबला है किसी काल होती ।
तो ऐसी है लहर उठती चित्त मे कल्पना की ।
जो हो जाती पवन, गति पा वांछिता लोक - प्यारी ।
मै छू आती परम - प्रिय के मंजु - पादाम्बुजो को ।।५५।।

निर्लिप्ता हूं अधिकतर मैं नित्यशः - संयता हूँ ।
तो भी होती अति व्यथित हूँ श्याम की याद आते ।
वैसी वांछा जगत - हित की आज भी है न होती ।
जैसी जी मे लसित प्रिय के लाभ की लालसा है ।।५६।।

हो जाता है उदित उर मे मोह जो रूप - द्वारा ।
व्यापी भू मे अधिक जिसकी मंजु - कार्य्यावली है ।
जो प्रायः है प्रसव करता मुग्धता मानसो मे ।
जो है क्रीड़ा अवनि चित की भ्रान्ति उद्विग्नता का ।।५७।।

जाता है पंच - शर जिसकी ‘कल्पिता - मूर्ति'। माना ।
जो पुष्पो के विशिख - बल से विश्व को वेधता है ।
भाव - ग्राही मधुर - महती चित्त - विक्षेप - शीला ।
न्यारी - लीला सकल जिसकी मानसोन्मादिनी है ।।५८॥