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षोड़ाश सर्ग

वैचित्र्यो से वलित उसमे ईदृशी शक्तियाँ है ।
ज्ञाताओ ने प्रणय उसको है बताया न तो भी ।
है दोनो से सबल बनती भूरि - आसंग - लिप्सा ।
}}होती है किन्तु प्रणयज ही स्थायिनी औ प्रधाना ॥५९॥

जैसे पानी प्रणय तृषितो की तृषा है न होती ।
हो पाती है न क्षुधित - क्षुधा अन्न - आसक्ति जैसे ।
वैसे ही रूप निलय नरो मोहनी - मूर्तियो मे ।
हो पाता है न ‘प्रणय' हुअा मोह रूपादि - द्वारा ॥६०॥

मूली - भूता इस प्रणय की बुद्धि की वृत्तियाँ है ।
हो जाती है समधिकृत जो व्यक्ति के सद्गुणो से ।
वे होते है नित नव, तथा दिव्यता - धाम, स्थायी ।
पाई जाती प्रणय - पथ मे स्थायिता है इसीसे ॥६१॥

हो पाता है विकृत स्थिरता - हीन है रूप होता ।
पाई जाती नहि इस लिये मोह मे स्थायिता है ।
होता है रूप विकसित भी प्रायश एक ही सा ।
हो जाता है प्रशमित अतः मोह संभोग से भी ।।६२।।

नाना स्वार्थों सरस - सुख की वासना - मध्य डूबा ।
आवेगो से वलित ममतावान है मोह होता ।
निष्कामी है प्रणय - शुचिता - मूर्ति है सात्विकी है ।
होती पूरी - प्रमिति उसमे आत्म - उत्सर्ग की है ।।६३॥
 
सद्य होती फलित, चित मे मोह की मत्तता है ।
धीरे - धीरे प्रणय वसता, व्यापता है उरो मे ।
हो जाती है विवश अपरा - वृत्तियॉ मोह - द्वारा ।
भावोन्मेषी प्रणय करता चित्त सद्वृत्ति को है ॥६४।।