पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३१९

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प्रियप्रवास

हो जाते है उदय कितने भाव ऐसे उरो मे ।
होती है मोह - वश जिनमे प्रेम की भ्रान्ति प्रायः ।
वे होते है न प्रणय न वे है समीचीन होते ।
पाई जाती अधिक उनमे मोह की वासना है ॥६५॥

हो के उत्कण्ठ प्रिय - सुख की भूयसी - लालसा से ।
जो है प्राणी हृदय - तल की वृत्ति उत्सर्ग - शीला ।
पुण्याकांक्षा सुयश - रुचि वा धर्म - लिप्सा बिना ही ।
जाताओं ने प्रणय अभिधा दान की है उसीको ॥६६।।

आदौ होता गुण ग्रहण है उक्त सद्वृत्ति - द्वारा ।
हो जाती है उदित उर में फेर आसंग-लिप्सा ।
होती उत्पन्न सहृदयता बाद संसर्ग के है ।
पीछे खो आत्म - सुधि लसती आत्म - उत्सर्गता है ।।६७।।

सद्गंधो से, मधुर - स्वर से, स्पर्श से औ रसो से ।
जो है प्राणी हृदय - तल मे मोह उद्भूत होते ।
वे ग्राही है जन - हृदय के रूप. के मोह ही से ।
हो पाते है तदपि उतने मैत्तकारी नही वे ॥६८॥

व्यापी भी है अधिक उनसे रूप का मोह होता ।
पाया जाता प्रबल उसका चित्त - चाञ्चल्य भी है ।
मानी जाती न क्षिति - तल मे है पतंगोपमाना ।
भृङ्गो, मीनो, द्विरद मृग की मत्तता प्रीतिमत्ता ॥६९।।

मोहो मे है प्रबल सबसे रूप का मोह होता ।
कैसे होगे अपर, वह जो प्रेम है हो न पाता ।
जो है प्यारा प्रणय - मणि सा कॉच सा मोह तो है ।
ऊँची न्यारी रुचिर महिमा मोह से प्रेम की है ॥७०॥