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षाड़श सर्ग

दोनो ऑखे निरख जिसको तृप्त होती नही हैं ।
ज्यो-ज्यो देखे अधिक जिसकी दीखती मजुता है ।
जो है लीला - निलय महि मे वस्तु स्वर्गीय जो है ।
ऐसा राका - उदित - विधु सा रूप उल्लासकारी ।।७१।।

उत्कण्ठा से बहु सुन जिसे मत्त सा वार लाखो ।
कानो की है न तिल भर भी दूर होती पिपासा ।
हत्तन्त्री मे ध्वनित करता स्वर्ग- संगीत जो है ।
ऐसा न्यारा - स्वर उर - जयी विश्व - व्यामोहकारी ॥७२।।

होता है मूल अग जग के सर्वरूपो - स्वरो का ।
या होती है मिलित उसमे मुग्धता सद्गुणों की ।
ए बाते ही विहित - विधि के साथ है व्यक्त होती ।
न्यारे गंधो सरस - रस, औ स्पर्श-वैचित्र्य में भी ।।७३।।

पूरी - पूरी कुँवर - वर के रूप मे है महत्ता ।
मंत्रो से हो मुखर, मुरली दिव्यता से भरी है ।
सारे न्यारे प्रमुख - गुण की सात्विकी मूर्ति वे है ।
कैसे व्यापी प्रणय उनका अन्तरो मे न होगा ।।७४।।

जो आसक्ता ब्रज - अवनि मे बालिकायें कई है ।
वे सारी ही प्रणय - रॅग से श्याम के रञ्जिता है ।
मैं मानेंगी अधिक उनमे है महा - मोह - मग्ना ।
तो भी प्राय प्रणय - पथ की पंथिनी ही सभी है ।।७५।।

मेरी भी है कुछ गति यही श्याम को भूल दूं क्यो ।
काढ़ूॅ कैसे हृदय - तल से श्यामली - मूर्ति न्यारी ।
जीते जी जो न मन सकता भूल है मंजु - ताने ।
तो क्यो होगी शमित प्रिय के लाभ की लालसाये ॥७६।।