पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५०
प्रियप्रवास

ए ऑखे है जिधर फिरती चाहती श्याम को है ।
कानो को भी मधुर - रव की आज भी लौ लगी है ।
कोई मेरे हृदय - तल - को पैठ के जो विलोके ।
तो पावेगा लसित उसमे कान्ति - प्यारी उन्हींकी ॥७७।।

जो होता है उदित नभ मे कौमुदी कांत आ के ।
या जो कोई कुसुम विकसा देख पाती कही हूँ ।
शोभा- वाले हरित दल के पादपो को विलोके ।
है प्यारे का विकच - मुखड़ा आज भी याद आता ॥७८॥

कालिन्दी के पुलिन पर जा, या, सजीले - सरों मे ।
जो मै फूले - कमल - कुल को मुग्ध हो देखती हूँ ।
तो प्यारे के कलित - कर की औ अनूठे - पगो की ।
छा जाती है सरस - सुषमा वारि स्रावी - हगो मे ॥७९॥

ताराओ से खचित - नभ को देखती जा कभी हूँ ।
या मेघों मे मुदित - वक की पंक्तियाँ दीखती है ।
तो जाती हूँ उमग बँधता ध्यान ऐसा मुझे है ।
मानो मुक्ता - लसित - उर है श्याम का दृष्टि आता ॥८॥

छू देती है मृदु - पवन जो पास आ गात मेरा ।
तो हो जाती परस सुधि है श्याम - प्यारे - करो की ।
ले पुष्पो की सुरभि वह जो कुंज मे डोलती है ।
तो गंधो से बलित मुख की वास है याद आती ॥८१‌‌।।

ऊँचे - ऊँचे शिखर चित की उच्चता हैं दिखाते ।
ला देता है परम दृढ़ता मेरु आगे हगो के ।
नाना - क्रीड़ा - निलय - झरना चारु - छीटे उड़ाता ।
उल्लासो को कुंवर • वर के चक्षु मे है लसाता ।।८२॥