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प्रियप्रवास

मेरी बाते श्रवण कर के आप उद्विग्न होंगे ।
जानेगे मैं विवश बन के हूँ महा - मोह - मग्ना ।
सच्ची यो है न निज - सुख के हेतु मै मोहिता हूँ ।
संरक्षा में प्रणय - पथ के भावतः हूँ सयत्ना ॥८९।।

हो जाती है विधि - सृजन से इक्षु मे माधुरी जो ।
आ जाता है सरस रॅग जो पुष्प की पंखड़ी में ।
क्यो होगा सो रहित रहते इक्षुता - पुप्पता के ।
ऐसे ही क्यो प्रेसृत उर से जीवनाधार होगा ॥९०॥

क्यो मोहेगे न ग लख के मूर्तियाँ रूपवाली ।
कानो को भी मधुर - स्वर से मुग्धता क्यो न होगी ।
क्यो डूबेगे न उर रेंग मे प्रीति - आरंजितो के ।
धाता - द्वारा सृजित तन-में तो इसी हेतु वे है ॥९१॥

छाया - ग्राही मुकुर यदि हो वारि हो चित्र क्या है ।
जो वे छाया ग्रहण न करे चित्रता तो यही है ।
वैसे ही नेत्र, श्रुति, उर मे जो न रूपादि व्यापे ।
तो विज्ञानी - विबुध उनको स्वस्थ कैसे कहेगे ॥१२॥

पाई जाती श्रवण करने आदि मे भिन्नता है ।
देखा जाना प्रभति भव मे भूरि - भेदों भरा है ।
कोई होता कलुप - युत है कामना - लिप्त हो के ।
त्योही कोई परम - शुचितावान औ संयमी है ।।९३।।

पक्षी होता सु - पुलकित है देख सत्पुष्प फूला ।
भौरा शोभा निरख रस ले मत्त हो गूॅजता है ।
अर्थी - माली मुदित बन भी है उसे तोड़ लेता ।
तीनो का ही कल - कुसुम का देखना यो त्रिधा है ।।९४।।