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षोडश सर्ग

लोकोल्लासी छवि लख किसी रूप उद्भासिता की ।
कोई होता मदन - वश है मोद मे मग्न कोईक्ष।
कोई गाता परम - प्रभु की कीर्ति है मुग्ध सा हो ।
यो तीनो की प्रचुर - प्रखरा दृष्टि है भिन्न होती ।।९५।।

शोभा - वाले विटप विलसे पक्षियो के स्वरो से ।
विज्ञानी है परम - प्रभु के प्रेम का पाठ पाता ।
व्याधा की है हनन - रुचियाँ और भी तीव्र होती ।
यो दोनो के श्रवण करने मे बड़ी भिन्नता है ।।९६।।

यो ही है भेद युत चखना, सूॅघना और छूना ।
पात्रो में है प्रकट इनकी भिन्नता नित्य होती ।
ऐसी ही है हृदय - तल के भाव मे भिन्नतायें ।
भावो ही से अवनि - तल है स्वर्ग के तुल्य होता ।।९७।।

प्यारे आवें सु - बयन कहे प्यार से गोद लेवे ।
ठंढे होवें नयन दुख हो दूर मै मोद पाऊँ ।
ए भी है भाव मम उर के और ए भाव भी है ।
प्यारे जीवे जग - हित करे गेह चाहे न आवे ॥९८॥

जो होता है हृदय - तल का भाव लोकोपतापी ।
छिद्रान्वेपी, मलिन, वह है तामसी - वृत्ति - वाला ।
नाना भोगाकलित, विविधा - वासना - मध्य डूवा ।
जो है स्वार्थाभिमुख वह है राजसी - वृत्ति शाली ।।९९।।

निष्कामी है भव - सुखद है और है विश्व - प्रेमी ।
जो है भोगोपरत वह है सात्विकी - वृत्ति - शोभी ।
ऐसी ही है श्रवण करने आदि की भी व्यवस्था ।
आत्मोत्सर्गी, हृदय - तल की सात्विकी - वृत्ति ही है ।।१००।।