पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रियप्रवास

जिह्वा, नासा, श्रवण अथवा नेत्र होते शरीरी ।
क्यो त्यागेगे प्रकृति अपने कार्य को क्यो तजेगे ।
क्यो होवेगी शमित उर की लालसाये, अतः मै ।
रंगे देती प्रति - दिन उन्हे सात्विकी - वृत्ति मे हूँ ॥१०१।।

कजो का या उदित - विधु का देख सौदर्य ऑखो ।
या कानो से श्रवण कर के गान मीठा खगो का ।
मै होती थी व्यथित, अब हूँ शान्ति सानन्द पाती ।
प्यारे के पॉव, मुख, मुरली - नाद जैसा उन्हे पा ॥१०२।।

यो ही जो अवनि नभ मे दिव्य, प्यारा, उन्हें मैं ।
जो छूती हूँ श्रवण करती देखती सूॅघती हूँ ।
तो होती हूँ मुदित उनमे भावतः श्याम की पा ।
न्यारी - शोभा, सुगुण - गरिमा अंग संभूत साम्य ॥१०३॥

हो जाने से हृदय - तल का भाव ऐसा निराला ।
मैने न्यारे परम गरिमावान दो लाभ पाये ।
मेरे जी में हृदय विजयी विश्व का प्रेम जागा ।
मैने देखा परम प्रभु को स्वीय - प्राणेश ही मे ॥१०४।।

पाई जाती विविध जितनी वस्तुये है सबो मे ।
जो प्यारे को अमित रंग औ रूप मे देखती हूँ ।
तो मैं कैसे न उन सबको प्यार जी से करूँगी ।
यो है मेरे हृदय - तल में विश्व का प्रेम जागा ।।१०५।।
 
जो आता है न जन - मन मे जो परे बुद्धि के है ।
जो भावो का विषय न बना नित्य अव्यक्त जो है ।
है ज्ञाता की न गति जिसमे इन्द्रियातीत जो है ।
सो क्या है, मै अबुध अबला जान पाऊँ उसे क्यो ॥१०६।।