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प्रियप्रवास

नाना प्राणी तरु गिरि लता आदि की बात ही क्या ।
जो दूर्वा से धु - मणि तक है व्योम मे या धरा मे ।
सद्भावों के सहित उनसे कार्य - प्रत्येक लेना ।
सच्चा होना सुहृद उनका भक्ति है सख्य - नाम्नी ॥१२५॥

वसततिलका छन्द
जो प्राणि - पुंज निज कर्म-निपीड़नो से ।
नीचे समाज - वपु के पग सा पड़ा है ।
देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा ।
है भक्ति लोक - पति की पद-सेवनाख्या ।।१२६।।

द्रुतविलम्बित छन्द
कह चुकी प्रिय - साधन इंश का ।
कुँवर का प्रिय - साधन है यही ।
इस लिये प्रिय की परमेश की ।
परम - पावन - भक्ति अभिन्न है॥१२७‌‌।।

यह हुआ मणि - कांचन - योग है ।
मिलन है यह स्वर्ण - सुगंध का ।
यह सुयोग मिले बहु' - पुण्य से ।
अवनि मे अति - भाग्यवती हुई ॥१२८॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
जो इच्छा है परम - प्रिय की जो अनुज्ञा हुई है ।
मै प्राणो के अछत उसको भूल कैसे सकेंगी ।
यो भी मेरे परम व्रत के तुल्ये बातें यही थी ।
हो जाऊँगी अधिक अब मै दत्तचित्ता इन्हीमे ॥१२९।।

मैं मानॅगी अधिक मुझमे मोह - मात्रा अभी है ।
होती हूँ मै प्रणय - रंग से रंजिता नित्य तो भी ।
ऐसी हूँगी निरत अब मैं पूत - कार्यावली मे ।
मेरे जी मे प्रणय जिससे पूर्णत. व्याप्त होवे ॥१३०॥