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षोड़शी सर्ग


मैंने प्रायः निकट प्रिय के बैठ, है भक्ति सीखी ।
जिज्ञासा से विविध उसका मर्म है जान पाया ।
चेष्टा ऐसी सतत अपनी बुद्धि - द्वारा करूँगी ।
भूलूँ - चू न इस व्रत की पूत - कार्य्यावली मे ॥१३१||

जा के मेरी विनय इतनी नम्रता से सुनावे ।
मेरे प्यारे कुँवर - वर को आप सौजन्य - द्वारा ।
मैं ऐसी हूँ न निज - दुख से कष्टिता शोक - मग्ना ।
हा । जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियो के दुखो से ॥१३२।।

गोपी गोपो विकल ब्रज की बालिका वालको को ।
आ के पुष्पानुपम मुखड़ा प्राणप्यारे दिखावे ।
वाधा कोई न यदि प्रिय के चारु - कर्तव्य मे हो ।
तो वे आ के जनक - जननी की दशा देख जावे ॥१३३।।

मै मानूंगी अधिक बढ़ता लोभ है लाभ ही से ।
तो भी होगा सु - फल कितनी भ्रान्तियाँ दूर होगी ।
जो उत्कण्ठा - जनित दुखड़े दाहते है उरो को ।
सद्वाक्यो से प्रवल उनका वेग भी शान्त होगा ॥१३४।।

सत्कर्मी है परम - शुचि है आप ऊधो सुधी है ।
अच्छा होगा सनय प्रभु से आप चाहे यही जो ।
आज्ञा भूलें न प्रियतम की विश्व के काम आऊँ ।
मेरा कौमार - व्रत भव में पूर्णता प्राप्त होवे ॥१३५।।द्रुतविलम्बित छन्द
चुप हुई इतना कह मुग्ध हो ।
व्रज - विभूति - विभूषण राधिका ।
चरण की रज ले हरिवंधु भी ।
परम - शान्ति - समेत बिदा हुए ॥१३६।।

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