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सप्तदश सर्ग

जो होती थी गगन - तल मे उत्थिता धूलि यों ही ।
तो आशंका - विवश बनते लोग थे बावले से ।
जो टापे हो ध्वनित उठती घोटको की कही भी ।
तो होता था हृदय शतधा गोप - गोपांगना का ॥४॥

धीरे-धीरे दुख - दिवस ए त्रास के साथ बीते ।
लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहो में ।
सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम - हाथो ।
प्राणो को ले मगध - पति हो भूरि उद्विग्न भागा ॥५॥

बारी - बारी ब्रज - अवनि को कम्पमाना बना के ।
बातें धावा - मगध - पति की सत्तरा- बार फैली ।
आया सम्वाद ब्रज-महि मे बार अटठारही जो ।
टूटी अाशा अखिल उससे नन्द - गोपादिको की ।।६।।

हा ! हाथो से पकड़ अबकी बार ऊबा - कलेजा ।
रोते - धोते यह दुखमयी बात जानी सबो ने ।
उत्पातो से मगध - नृप के श्याम ने व्यग्र हो के ।
त्यागा प्यारा - नगर मथुरा जा बसे द्वारिका मे ॥७॥

ज्यो होता है शरद ऋतु के बीतने से हताश ।
स्वाती - सेवी अतिशय तृपावान प्रेमी पपीहा ।
वैसे ही श्री कुँवर - वर के द्वारिका में पधारे ।
छाई सारी ब्रज - अवनि मे सर्वदेशी निराशा ॥८॥

प्राणी भाशा - कमल - पग को है नहीं त्याग पाता ।
सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि मे है ।
व्यापी भू के उर - तिमिर सी है जहाँ पै निराशा ।
है आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी ॥९॥