पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३३७

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प्रियप्रवास

सुन कर उसमें की आह रोमांचकारी ।
वह प्रति - गृह मे थी शीघ्र से शीघ्र जाती ।
फिर मृदु - वचनों से मोहनी - उक्तियो से ।
वह प्रबल - व्यथा का वेग भी थी घटाती ॥३४॥

गिन - गिन नभ - तारे ऊब ऑसू बहा के ।
यदि निज - निशि होती कश्चिदार्ता बिताती ।
वह ढिग उसके भी रात्रि में ही सिधाती ।
निज अनुपम राधा - नाम की सार्थता से ॥३५॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
राधा जाती प्रति-दिवस थीं पास नन्दांगना के ।
नाना बातें कथन कर के थी उन्हे बोध देती ।
जो वे होती परम - व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना ।
तो वे आठो पहर उनकी सेवना में बिताती ॥३६॥

घंटो ले के हरि - जननि को गोद में बैठती थीं ।
वे थी नाना जतन करती पा उन्हे शोक - मग्ना ।
धीरे धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त - पीड़ा ।
हाथो से थीं हग - युगल के वारि को पोंछ देती ॥३७॥

हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थी यशोदा ।
क्या आवेगे न अब ब्रज मे जीवनाधार मेरे ।
तो वे धीरे मधुर - स्वर से हो विनीता बताती ।
हॉ आवेगे, व्यथित - ब्रज को श्याम कैसे तजेगे ॥३८॥

आता ऐसा कथन करते वारि राधा - हगो मे ।
बूंदो - बूंदो टपक पड़ता गाल पै जो कभी था ।
जी ऑखो से सदुख उसको देख पाती यशोदा ।
तो धीरे यो कथन करती खिन्न हो तू न बेटी ॥३९।।