पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रियप्रवास

संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना - कार्य में भी ।
वे सेवा थीं सतत करती वृद्ध - रोगी जनों की ।
दीनो, हीनो, निबल विधवा आदि को मानती थी ।
पूजी जाती ब्रज - अवनि में देवियों सी अतः थीं ।।४६।।

खो देती थी कलह - जनिता आधि के दुर्गणो को ।
धो देती थी मलिन - मन की व्यापिनी कालिमायें ।
बो देती थी हृदय - तल मे बीज भावज्ञता का ।
वे थी चिन्ता-विजित - गृह में शान्ति - धारा बहाती ॥४७॥

आटा चीटी विहग गण थे वारि औ अन्न, पाते ।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी ।
पत्तों को भी न तरु - वर के वे, वृथा तोड़ती थी ।
जी से वे थी निरत रहती भूत - सम्बर्द्धना में ॥४८।।

वे छाया थी सु - जन शिर की शासिका थी खलों की ।
कंगालों की परम निधि थी औषधी पीड़ितो की ।
दीनो की थी बहिन, जननी थीं अनाथाश्रितो की ।
आराध्या थी ब्रज - अवनि की प्रेमिका विश्व की थी ॥४९॥

जैसा व्यापी विरह - दुख था गोप गोपांगना का ।
वैसी ही थी सदय - हृदया स्नेह की मूर्ति राधा ।
जैसी मोहावरित, ब्रज में तामसी - रात आई ।
वैसे ही वे लसित उसमे कौमुदी के समा थी ॥५०॥

जो थीं कौमार-व्रत - निरता बालिकायें अनेको ।
वे भी पा के समय ब्रज मे शान्ति विस्तारती थी ।
श्री राधा के हृदय - बल से दिव्य शिक्षा गुणो से ।
वे भी छाया - सदृश उनकी वस्तुतः हो गई थी ॥५१॥