पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३४

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बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अतएव मैने भी ‘प्रियप्रवास' को खड़ी बोली में ही लिखा है। संभव है कि उसमे अपेक्षित कोमलता और कान्तता न हो, परन्तु उससे यह सिद्धान्त नहीं हो सकता कि खड़ी बोली में सुन्दर कविता हो ही नहीं सकती । वास्तव बात यह है कि यदि उसमे कान्तता और मधुरता नहीं आई है तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष है, खड़ी बोली का नहीं।

ग्रन्थ का विषय

इस ग्रन्थ का विषय श्रीकृष्णचन्द्र की मथुरा-यात्रा है, और इसीसे इसका नाम ‘प्रियप्रवास' रखा गया है। कथा-सूत्र से मथुरायात्रा के अतिरिक्त उनकी और ब्रज-लीलायें भी यथास्थान इसमे लिखी गई है। जिस विषय के लिखने के लिये महर्षि व्यासदेव, कवि-शिरोमणि सूरदास और भाषा के उपर मान्य कवियो तथा विद्वानो ने लेखनी की परिचालना की है, उसके लिये मेरे जैसे मढधी का लेखनी उठाना नितान्त मूढता है। परन्तु जैसे रघुवंश लिखने के लिये लेखनी उठा कर कवि-कुल-गुरु कालिदास ने कहा था, “मणौवज्रसमुत्कीर्णो सूत्रस्येवास्ति में गति.।" उसी प्रकार इस अवसर पर मैं भी स्वच्छ हृदय से यही कहूँगा “अति अपार जे सरित वर, जो नृप सेतु कराहि । चढ़ि पिपीलिका परम लघु, विनु श्रम पारहि जाहि ॥" रहा यह कि वास्तव में मै पार जा सका हूँ या बीच ही में रह गया हूँ, किंवा उस पावन सेतु पर चलने का साहस करके निन्दित वना हूँ, इसकी मीमांसा विवुध जन करे । मेरा विचार तो यह है कि मैंने इस मार्ग में भी अनु- चित दुस्साहस किया है, अतएव तिरस्कृत और कलकित होने की ही आशा है। हॉ, यदि म्मर्मज्ञ विद्वज्जन इसको उदार दृष्टि से पढ कर उचित संशोधन करेगे, तो आशा है कि किसी