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सप्तदश सर्ग

तो भी आई न वह घटिका औ न वे वार आये ।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली ।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते ।
वैसे उन्माद - कर·स्वर से कोकिला भी न बोली ।।५२।।

जीते भूले न ब्रज - महि के नित्य उत्कण्ठ प्राणी ।
जी से प्यारे जलद - तन को, केलि - क्रीड़ादिको को ।
पीछे छाया विरह - दुख की वंशजो - वीच व्यापी ।
पच्ची यो है ब्रज - अबनि में आज भी अंकिता है ।।५३।।

सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे ।
राधा जैसी सदय - हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता ।
हे विश्वात्मा । भरत - भुव के अंक में और आवे ।
ऐसी व्यापी विरह - घटना किन्तु कोई न होवे ।।५४॥

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