पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३५

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समय में इस ग्रन्थ का विषय भी रसिको के लिये आनन्दकारक होगा।

हम लोगो का एक संस्कार है, वह यह कि जिनको हम अवतार मानते है, उनका चरित्र जब कही दृष्टिगोचर होता है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून से न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते है, जिसमें उसके ब्रह्मत्व का निरूपण हो । जो सज्जन इस विचार के हो, वे मेरे प्रेमाम्बुप्रश्रवण,प्रेमाम्बुप्रवाह और प्रेमाम्बुवारिधि नामक ग्रन्थों को देखे; उनके लिये यह ग्रन्थ नहीं रचा गया है। मैने श्रीकृष्णचन्द्र को इस ग्रन्थ में एक महापुरुष की भॉति अंकित किया है, ब्रह्म कर के नहीं। अवतारवाद की जड़ मै श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक मानता हूँ “यद् यद् विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छत्व ममतेजोशसभवम्", अतएव जो महापुरुष है, उसका अवतार होना निश्चित है। मैने भगवान् श्रीकृष्ण का जो चरित अंकित किया है, उस चरित का अनुधावन करके आप स्वय विचार करे कि वे क्या थे, मैने यदि लिख कर आपको बतलाया कि वे ब्रह्म थे, और तब आपने उनको पहचाना तो क्या बात रही । आधुनिक विचारो के लोगो को यह प्रिय नहीं है कि आप पक्ति-पंक्ति मे तो भगवान् श्रीकृष्ण को ब्रह्म लिखते चले और, चरित्र लिखने के समय “कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तु समर्थ प्रभु." के रंग में रॅग कर ऐसे कार्यों का कर्त्ता उन्हे बनावे कि जिनके करने में एक साधारण विचार के मनुष्य को भी घृणा होवे। संभव है कि मेरा यह विचार समीचीन न समझा जावे, परन्तु मैने, उसी विचार को सम्मुख रख कर इस ग्रन्थ को लिखा है, और कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे कि आधुनिक लोग भी सहमत हो सके। आशा है कि आप लोग दयार्द्र हृदय से मेरे उद्देश्य के