पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/४७

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है, इसको सहृदय पाठक स्वयं विचारें। इन्हीं दोनो चरणों मे मन, उनका, जब, और जतन भी हैं, किन्तु ये मन्, उन्का, जब और जतन नहीं बनाये गये। मुख्य कारण यह है कि ऐसा करने से छन्द और सदोप हो जाता, तथा उसकी भगता का पारा और ऊँचा चढ़ जाता। इस लिये उनके रूप परिवर्तन की आवश्यकता नहीं हुई। यदि यह प्रणाली भाषा पद्य मे चलाई जावे तो उसमे कितनी जटिलता और दुरूहता आ जावेगी इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं, कथित दोना वाते ही इसका पर्याप्त प्रमाण है। हिन्दी भाषा की प्रकृति हलन्त को प्राय सस्वर बना लेने की है। यदि उसकी इस प्रकृति परष्टि न रख कर उसके सस्वर वर्णों को भी हलन्त बना कर उसे संस्कृत का रूप दिया जाने लगे तो उसका हिन्दीपन तो नष्ट हो ही जायगा, साथ ही वह संस्कृत भाषा के हलन्त वर्षों के समान संधि साहाय्य से सौंदर्य सम्पादन करने के स्थान पर नितान्त असुविधामूलक पद्धति ग्रहण करेगी और अपनी स्वाभाविक सरलता खो देगी।

संस्कृत के निम्नलिखित पद्यो को देखिये, इनमे किस प्रकार हलन्त वर्णों ने सस्वर व्यञ्जनका रूप ग्रहण किया है और इस परि. वर्तन से इन पदो मे कितना माधुर्य्य आ गया है। हिन्दी मे किसी हलन्त वर्ण को यह सुयोग कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, क्योकि उसकी प्रकृति ही ऐसी नहीं है । उदाहरण के लिए नीचे की कविता के दोनो चरण ही पर्याप्त हैं।

वसुधामपि हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमती मिवापराम् ।
इति यथाक्रममाविरभून्मधुमवतीमवतीयं वनस्थलीम् ।

——रघुवश

मामपि दहत्येकायमहर्निशिमनल इवापत्यतासमुद्भव. शोक ।
शून्यमिव प्रतिभाति मे जगत् अफलमिव पश्यामि राज्यम् ।

——कादम्बरी

जो उर्दू के ढंग का पद्य सुधी पाठक जी ने संगीत शाकुन्तल