पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/५१

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अवश्य उपयोगी होगा, परन्तु उससे जो शब्दों में विकृति होगी, वह बड़ी ही दुर्बोधता और जटिलतामूलक होगी, अतएव ऐसी अवस्था मे वजन का आश्रय ही वांछनीय है, शब्द की विकृति नही, निदान इस समय यही प्रणाली प्रचलित और गृहीत है।

मैंने इन्ही बातो पर दृष्टि रख कर ‘प्रियप्रवास' में इसको, जिसको, करना इत्यादि को इसी रूप मे लिखा है, उनको सयुक्ताक्षर का रूप नही दिया है। न, जन, मन, मदन बस, अब इत्यादि के अंतिम अक्षरो को कही गुरु बनाने के लिये हलन्त किया है, आशा है मेरी यह प्रणाली बुधजन द्वारा अनुमोदित समझी जावेगी।

हलन्त वर्णों का सस्वर प्रयोग

मैं ऊपर लिख आया हूँ कि हिन्दी भाषा की यह स्वाभाविकता है कि वह प्राय युक्त वर्गों को सारल्य के लिये अयुक्त बना लेती है और हलन्त वर्ण को सस्वर कर लेती है, गर्व, मर्म, धर्म, दर्प,मार्ग इत्यादि का गरब, मरम, धरम, दरप, मारग इत्यादि लिखा जाना इस बात का प्रमाण है । यद्यपि आजकल की भाषा अर्थात् गद्य में ये शब्द प्राय. शुद्ध रूप मे ही लिखे जाते है, किन्तु साधारण बोलचाल मे वे अपभ्रंश रूप में ही काम देते है। खड़ी बोलचाल की कविता में गद्य के संसर्ग से वे शुद्ध रूप में भी लिखे जाने लगे हैं। किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनके अपभ्रंश रूप से भी काम लिया जाता है। मेरे विचार में यह दोनो प्रणाली ग्राह्य है। हलन्त वर्ण को सस्वर करके लिखने और युक्त वर्ण को अयुक्त वर्ण का रूप देने की प्रथा प्राचीन है उसके पास आचार्यों और प्रधान काव्य-कर्ताओ द्वारा व्यवहार किये जाने की सनद भी है, जैसा कि निम्नलिखित पद्य-खण्डो के अवलोकन करने से अवगत होगा:——