पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/५२

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शुक से मुनि शारद से बकता,
चिरजीवन लोमस से अधिकाने।

——गोस्वामी तुलसीदास

आपने करम करि उतरोगो पार,
तो पै हम करतार करतार तुम काहे को।

——सेनापति

राति ना सुहात ना सुहात परभात आली,
जब मन लागि जात काहू निरमोही सो ।

——पद्माकर

जो विपति हूँ मै पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं।
ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं सशय नहीं ।

——भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)

निदान इसी प्रणाली का अवलम्बन करके मैंने भी ‘प्रियप्रवास' में मरम इत्यादि शब्दो का प्रयोग संकीर्ण स्थलो पर किया है। ऐसा प्रयोग मेरी समझ में उस दशा में यथाशक्ति न करना चाहिये, जहाँ वह परिवर्तित रूप में किसी दूसरे अर्थ का द्योतक होवे। जैसा कि कविवर विहारीलाल के निम्नलिखित पद्य का समर शब्द है, जो स्मर का अशुद्ध रूप है और कामदेव के अर्थ में ही प्रयुक्त है, परन्तु अपने वास्तव अर्थ सग्राम की ओर चित्त को आकर्षित करता है।

“धस्यो मनो हिय घर समर ड्योढी लसत निसान"

हिन्दी-भाषा की कथित प्रकृति पर दृष्टि रख कर ही प्राचीन कतिपय लेखको ने पद्य क्या गद्य में भी अनेक शब्दो के हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना प्रारम्भ कर दिया था। मुख्यतः वे उस हलन्त वर्ण को प्राय सस्वर करके लिखते थे जो कि किसी शब्द के अन्त मे होता था। इस बात को प्रमाणित करने के लिये मैं मार्मिक लेखक स्वर्गीय श्रीयुत पंडित प्रतापनारायण मिश्र लिखित कतिपय पंक्तियाँ उनके प्रसिद्ध ‘ब्राह्मण' मासिक पत्र के खण्ड ४ संख्या १, २ से नीचे अविकल उद्धृत करता हूँ:——