पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/५३

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“तो कदाचित कोई परमेश्वर का नाम भी न ले"

“आप को चन्द्र- सूर्य इन्द्र करण व हातिम बनाया करते हैं

“छोटे बड़े दरिद्री धनी मूर्ख विद्वान सब का यही सिद्धान्त है"

——पृष्ठ सख्या १०

“सभी या तो प्रत्यक्ष ही विषवत या परम्परा द्वारा कुछ न कुछ नाश करनेवाले"

“बधनरहित होने पर भी भगवान का नाम दामोदर क्यो पड़ा"

——सख्या २ पृष्ठ

“द्रुपदतनया को केशाकरषण एवं वनवास आदि का दुख सहना पडा।

“यदि थोड़े से लोग उसके चाहनेवाले हैं भी तो निर्बल निरधन बदनाम"

——सख्या २ पृष्ठ ३

“यद्यपि कभी कभी विद्वान, धनवान और प्रतिष्ठावान लोग भी उसके यहाँ जा रहते हैं"

——सख्या २ पृष्ठ ५

“उसके चाहनेवाले उसे सारे जगत की भाषा से उत्तम माने बैठे हैं"

——सख्या २ पृष्ठ ६

“इस से निरलज हो के साफ साफ लिखते हैं।

——सख्या १ पृष्ठ ४

किन्तु आज कल गद्य में किसी हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना तो उठता ही जा रहा है, प्रत्युत पद्य में भी इसका प्रचार हो चला है। मध्य के हलन्त वर्ण की बात तो दूर रही इन दिनो किसी शब्द के अन्त्यस्थित हलन्त को, भी कतिपय आधुनिक प्रधान लेखक सस्वर लिखना नहीं चाहते । कदाचित् , विद्वान् , विषवत् , भगवान , धनवान् , प्रतिष्ठावान , जगत इत्यादि शब्दो के अन्तिम वर्ण को भी वे अब सस्कृत की रीति के अनुसार हलन्त ही लिखते