पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/५४

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है। आज कल वही लोग ऐसा नहीं करते जो संस्कृत कम जानते है अथवा प्राचीन प्रणाली के अनुमादक हैं, अन्यथा प्राय हिन्दी लेखक इसी पथ के पान्थ हैं। मैं यह कहूँगा कि इस प्रथा का जितना अधिक सामयिक पत्र-पत्रिकाओ में प्रचार हो रहा है, उतना ही संस्कृत से अनभिज्ञ लेखक को हिन्दी लिखना एक प्रकार से दुम्तर हो चला है और इस मार्ग में कठिनता उत्पन्न हो गई है परन्तु समय के प्रवाह को कौन रोक सकता है ? पद्य में अब भी यह प्रणाली सर्वतोभावेन गृहीत नहीं हुई है, उदाहरण स्वरुप निम्नलिखित पद्यो पर दृष्टिपात कीजिय——

“मित्र बन्धु विद्वान साधु-समुदाय एक सपना पाया ।"
“इस प्रकार हो विन जगत में नहीं किसी पर मरता हूॅ ।"
“तो भी किन्तु कदाचित यदि बहु देशों का हम परे मिलाना ।"
“परिमित इच्छावान वहाँ के योग्य वहाँ का है वासी ।'
“दीन उसे बेचे है औ धनवान मोल का मॉगै है ।'

——प० श्रीधर पाठक ( श्रान्तपथिक )

“धे नियग विद्या विनय के भीर हम विद्वान थे ।
धर्मनिष्ठा भी सभी गुणवान थे श्रीमान थे ‌।।

——सरस्वती, भाग १४ खड २ गल्या ५ पृष्ट ६३३

मैंने भी ‘प्रियप्रवास में कदाचित, महन् इत्यादि शब्दों का प्रयोग आवश्यक स्थलों पर उनके अन्तिम हलत वर्ग को सस्वर बना कर किया है। मेरा विचार है कि कविता के लिये इतनी सुविधा आवश्यक है, यो तो हिन्दी की गठन-प्रणाली का ध्यान करके इनका गद्य में भी इस प्रकार लिसा जाना सर्वथा असगत नहीं है ।