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द्रुतविलम्बित छन्द
दिवस का अवसान समीप था ।
गगन था कुछ लोहित हो चला ।
तरु-शिखा पर थी अब राजती ।
कमलिनी-कुल-बल्लभ की प्रभा ।।१।।
विपिन धीर विहंगम - पृन्न का ।
पनिनाद विवर्तित था हुया ।
ध्वनिमयी - विविधा विदगावली ।
राही नभ - गण्टल मध्य धी ॥२॥
अधिक और ई नभ - लालिमा ।
दसों दिशा पनुर्गजन हो गई ।
सफल - पादप - पुष्प हरीतिगा ।
चरगिमा विनिमरिजन मी हुई ॥३॥