पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/७४

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प्रथम सर्ग

मधुरता -सब था मृदु - घोलना ।
अमृत - सिंचित सी मुस्कान थी ।
समझ थी जन - मानस मोहिनी ।
कमल - लोचन की कमनीवना ।

सबल-जानु विलम्विन वायु थी ।
पति-सुपुष्ट-समुन्नत व्यर्थ था ।
का किशोर-कला लालिमा था ।
मुख प्रकृतिक पुष्प-समान था ।।२३।।

सरस - जन समूह सहेलियां ।
सहचरी मन मोहन मुंह की ।
रविकांत - जननी कल-नादिनी ।
मुर्तियां थी पर में मधुवर्षिणी ।।२४।।

विलायती मुख की छवि पुंजता ।
छिटकनी विति के वन की छटा ।
बगरती घर दीप्ती दिसन्न में ।
विनित में कर कान्वि सी ।।२५।।

मुदित बेचक की एक मन्हली ।
जब प्रजाधिस सम्मुख जा पड़ी ।
विलखते सुख कि कवि रो लगी ‌।।२६।।