पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रियप्रवास

उछलते शिशु थे अति हर्ष से ।
युवक थे रस की निधि लूटते ।
जरठ को फल लोचन का मिला ।
निरख के सुपमा सुखमूल की ॥२८॥

बहु-विनोदित थी व्रज - वालिका ।
तरुणियाँ सव थी तृण तोड़ती।
बलि गई बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की ।।२९।।

मुरलिका कर - पंकज मे लसी ।
जब अचानक थी वजती कभी ।
तव सुधारस मंजु - प्रवाह मे ।
जन - समागम था अवगाहता ॥३०॥

ढिग सुशोभित श्रीवलराम थे ।
निकट गोप - कुमार - समूह था ।
विविध गातवती गरिमामयी ।
सुरभि थी सव ओर विराजती ।।३१।‌।

बज रहे बहु - श्रृंग विपाण थे
करिणत. हो उठता वर-वेणु था ।
सरस - राग - समूह अलाप से ।
रसवती - वन थी मुदिता- दिशा ॥३२॥

विविध - भाव - विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहु दर्शक - मण्डली ।
अति मनोहर थी वनती कभी ।
बज किसी कटि की कलकिकिणी ॥३३॥