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द्वितीय सर्ग

विवश है करती विधि वामता ।
कुछ बुरे दिन हैं मज - भूमि के ।
हम सभी श्रनिहीं - हतभाग्य हैं ।
उपजती नित जो नव - व्याधि है ।।२९।।

किन परिश्रम और प्रयन्न से ।
कर सुरोत्तम की परिमेवना ।
इस जराजित - जीवन - काल मे ।
महर को सुत का मुख्य है दिन्या ॥३०॥

सुअन भी सुर विप्र प्रसाद से ।
प्रति अपूर्व अलौकिक है मिला ।
निज गुणाबलि ने इम काल जो ।
ब्रज - धरा - जन जीवन-प्राण है ॥३१॥

पर बड़े दुख की यह बात है ।
विपद जो अब भी टलती नहीं ।
अग्रह है कहते बनती नहीं ।
परम - दग्धकरी उर की व्यथा ॥३२॥

जनम की तिथि में बलवीर की ।
बहु - उपद्रय है प्रज में ।
विकटना जिन की अब भी नहीं ।
हदय में अपसारित हो सकी ॥३३॥

पग्म - पातक की प्रतिमृति सी ।
पति पावनतामय - पृतना ।
पग - अपेय पिला कर श्याम को।
कर चुकी ब्रज भूमि विनाश थी ।।३४।।