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प्रियप्रवास

पर किसो चिर-संचित-पुण्य से ।
गरल अमृत अर्भक को हुआ ।
विष-मयी वह हो कर आप ही ।
कवल काल - भुजंगम का हुई ॥३५॥

फिर अचानक धूलिमयी महा ।
दिवस एक प्रचंड हवा चली ।
श्रवण से जिस की गुरु - गर्जना ।
कॅप उठा सहसा उर दिग्वधू ॥३६॥

उपल वृष्टि हुई तम छा गया ।
पट गई महि कंकर - पात से ।
गड़गड़ाहट वारिद - व्यूह की।
ककुभ से परिपूरित हो गई ॥३७।।

उखड़ पेड़ गये जड़ से कई ।
गिर पड़ी अवनी पर डालियाँ ।
शिखर भग्न हुए उजड़ी छते ।
हिल गये सब पुष्ट निकेत भी ॥३८।।

बहु रजोमय आनन हो गया ।
भर गये युग - लोचन धूलि से ।
पवन - वाहित - पांशु - प्रहार से ।
गत बुरी ब्रज - मानव की हुई ॥३९॥

घिर गया इतना तम - तोम था ।
दिवस था जिससे निशि हो गया ।
पवन - गजेन औ धन-नाद से ।
कप उठी व्रज - सर्व वसुन्धरा ॥४०॥