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प्रियप्रवास

वधन - उद्यम दुर्जय - वत्स का ।
कुटिलता अघ - संज्ञक - सर्प की ।
विकट घोटक की अपकारिता ।
हरि निपातन यत्न ‘अरिष्ट' का ॥४७॥

कपट - रूप - प्रलम्ब प्रवचना ।
खलपना - पशुपालक - व्योम का ।
अहह ए सब घोर अनर्थ थे। ।
व्रज - विभूषण है जिनसे बचे ॥४८॥

पर दुरन्त - नराधिप कंस ने ।
अब कुचक्र भयंकर है रचा ।
युगल - बालक सग ब्रजेश जो ।
कल निमंत्रित है मुख मे हुए ॥४९।।

गमन जो न करे बनती नहीं ।
गमन से सब भॉति विपत्ति है ।
जटिलता इस कौशल जाल की ।
अहह है अति कष्ट-प्रदायिनी ॥५०॥

प्रणतपाल कृपानिधि श्रीपते ।
फलद है प्रभु का पद - पद्म ही ।
दुख-पयोनिधि का वही ।
जगत मे परमोत्तम पोत है ।।५१।।

विषम संकट में व्रज है पड़ा ।
पर हमे अवलम्बन है वही ।
निबिड़ पामरता, तम हो चला ।
पर प्रभो वल है नख - ज्योति का ॥५२॥