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द्वितीय सर्ग

विपद ज्यो बहुधा कितनी टली।
प्रभु कृपावल त्यो यह भी टले।
दुखित मानस का करुणानिधे।
अति विनीत निवेदन है यही॥५३॥

ब्रज-विभाकर ही अवलम्ब है।
हम सशंकित प्राणि-समूह के।
यदि हुआ कुछ भी प्रतिकूल तो।
ब्रज-धरा तमसावृत हो चुकी॥५४॥

पुरुष यो करते अनुताप थे।
अधिक थी व्यथिता ब्रज-नारियाँ।
वन अपार-विषाद-उपेत वे।
विलख थीं दृग-वारि विमोचती॥५५॥

दुख प्रकाशन का क्रम नारि का।
अधिक था नर के अनुसार ही।
पर विलाप कलाप विसूरना।
विलखना उन मे अतिरिक्त था॥५६॥

ब्रज-धरा-जन की निशि साथ ही।
विकलता परिवर्ध्दित हो चली।
तिमिर साथ विमोहक-शोक भी।
प्रबल था पलही पल हो रहा ॥५७॥

विशद-गोकुल बीच विपाद की।
अति-असयत जो लहरे उठी।
बहु विवर्ध्दित हो निशि-मध्य ही।
ब्रज-धरातलव्यापित वे हुई॥५८॥