पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/११४

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छठा प्रभाव आवार्थ केशव जी किसी कर्कशा स्त्री की बाणी की निन्दा व्यंगसे करते हैं । कहते हैं : कैसी मधुर वाणी है कि झीगुरी को वाणी से भी बारीक और रसीली है, टिटिहरी की रटन को भी निगल गई है, शृगाली की वाणी से सवाई और चुइ- यल की बोली से भी बढ़कर है, भैंस की बोली से अच्छी गदही की वाणी से अधिक स्पष्ट, और ऊबिली की बोली से अधिक सुस्पष्ट है । भेडी की बोली की तो सीमा ही मेट दी है, न्यौरी ( नकुली । की बोली का घमंड ही तोड़ दिया है, बकरी की भाषा से भी सुन्दर है, कौवी की काँध काँव तों उसके सामने गल गई । सुवरिया संकोच वश और कुतिया डर कर चुप हो रही, धुधुधारिन की तो बात ही क्या है, उसे सुनकर हथिनी भी मोहित होती है। १९-(सुस्वर वर्णन) मूल-कलरव, केकी, कोकिला, शुक, सारो, कलहंस । तोतक, तत्री, आदि दै शुभमुर दुदुभि, बंस ॥४॥ शब्दार्थ-कलरव - कबूतर। केकी = मोर । सारो-शारिका, मैना 1 तंत्री=तार युक्त बाजे जैसे सितार, वीणादि। तोतक पपीहा । बंस-बांसुरी। मूल-ककिन की केका सुनि काके न मथत मन, मनमथ-मनोरथ रथपथ सोहिये । कोकिला की काकलीन कलित ललित बाग, देखत न अनुराग उर अवरोहिये । कोकन की कारिका कहत शुक शारिकान, केशोदास नारि का कुमारिका हू मोहिये ।