पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१२२

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%D छठा प्रभाव जैसे बकलोचनि कलित कर कंकननि, बलित ललित दुति प्रगट प्रभानि की। केशोदास ऐसे राज रास में रसिक लाल, असपास मंडली बिराजै गोपिकानि की ॥ ५९॥ शब्दार्थ- -प्रालबाल-थाला। थलज= कोई पौधा ( यहाँ तमाल पौधा) जलज = कमल । मति मोहै कवितान की कवि प्रतिमा मोहित होती है ( कवि गण उसका वर्णन नहीं कर सकते। ) सविशेष - अखंडित, पूर्ण । अशेषरेख सोम = पूर्ण चंद्रमा ! सुबेर सुन्दर । सीमा सुखदानिकी - सुखाद वस्तुओं की सीमा ( सर्वाधिक सुखद ) । कलित कर सुन्दर हाथ । कंकन बलित = कंकण युक्त । रसिकलाल = श्री कृष्णा । (नोट)-रास समय में श्री कृष्ण मध्य में स्थित हैं, मंडलरूप में इर्द गिर्द गोपियां हैं। इसी दृश्य की कई उपमाएं कहते हैं । भावार्थ-रासमंडल के बीच में श्रीकृष्ण हैं, इर्द गिर्द गोपियां घेरे हैं, यह दृश्य ऐसा देख पड़ता है जैसे मणिमय थाला में कोई पौदा खड़ा हो, या जैसे पूर्ण परिवेष में सुन्दर भेषवाला और पूर्ण आनंददायक पूर्ण चंद्रमा हो, या जैसे किसी बंक लोचनी स्त्री की सुंदर कलाई में कंकण पड़ा हो और उसकी दुति प्रत्यक्ष प्रभा प्रकाशित कर रही हो। २६, २:--(अगति तथा सदागति वर्णन ) मूल अगति सिंधु, गिरि, ताल, तरु, बापी, कूप बखानि । महानदी, नद पंथ, जग, पवन सदागति जानि ॥३०॥ भावार्थ-संधु, गिरि, ताल, तरू, बापी, कूप इत्यादि