पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१२३

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प्रिया-प्रकाश अचल जानो। और बड़ी नदी, नद, पंथ, जग और पवन सदैव चल समझो। ( यथा) मूल-पंथ न थकत मन मनोरथ रथन के, केशोदास जगमग जैसे गाये गीत मैं । पवन विचार चक चक्र मन चित्त चढ़ि, भूतल अकास भ्रमैं घाम जल सीत में ! कौलौं राखों थिर बप बापी कूप संर सम, हरि बिन कीन्हें बहु बासर व्यत्तीत मैं । ज्ञान गिरि फोरि तोरि लाज तरु जाय मिलौं, आपही ते आपगा ज्यों आपानधि प्रीतमैं ॥३॥ शब्दार्थ-थ नके मनोरथ के रथों का पंथ कभी थकता नहीं अर्थात अनेक प्रकार के मनोरथ मन में उठा करते हैं। जगमगमैं =जैसा संसार का कायदा है और जैसा गीताओं में कहा गया है। पवन विचार"-चड़ि= (अन्य ) बिचार पवन ऐ चदि और मन तथा चित्त चक चक्र चढ़ि-मेरे बिचार पवन पर चढ़ कर और मेरे सन और चित्त दिशाओं के चक्र पर चाकर। चक = दिशा। आपगा=नदी । श्राप निधि - समुद्र । गीतमैं = प्रीतम को। भावार्थ-(कई पूर्वानुरागिनी खी सखी ले कहती है कि) मेरे मन में अनेक प्रकार के मनोरथ उठा करते हैं, जैसी कि संसार की रीति है और जैसा कि होताओं में वर्णित है। मेरा पिचार पवन पर सार होकर और मेरे मन और चित्त दिशाओं के चाक पर सवार होकर थाम, जल, शीत की पर-