पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१२६

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छठा प्रमात्र (महादेव जू को दान वर्णन ) भूल-कापि उठो आपनिधि तपनहिं ताप चढ़ी, सीरिये शरीर गति भई रजनीश की। अजहूं न ऊंचो चाहै अनल मलिन मुख, लागि रही लाज मुख मानौ मन बीस की । छबि सो छबीली लक्षि छाती में छपाई हरि, छूटिगई दानि गति कोटि हू तेंतीस की । केशोदास तेही काल कारोई वै आयो काल, सुनत श्रवण बकसीस एक ईश की ।। ६७ ॥ शब्दार्थ-श्रापनिधि-समुद्र। तपन = सूर्य । ताप-ज्वर। रजनीशचंद्रमा । लक्षि लक्ष्मी । सकसीस-दान । भावार्थ-श्रीमहादेव जी ने किसी अपने भक्त को एक बस्तु बकसीस में देने का बरदान दिया। इसबात की खबर सुनकर समुद्र काँप उठा (कि कहीं मेरे रन देकर मेरा रत्नाकर नाम ही न मिटा दें) सूर्य को भय से ज्वर चढ़ श्राया ( कि कही हमारा घोड़ा न दे डालें) और चंद्रमा का शरीर तो ठंढाही पड़ गया कि कहीं मेरा अमृत न दे डालें तो मेरा सुधाकर नाम ही मिट जाय ।उसी भय से अशि देव मलीन मुख होकर आज तक ऊंचे नहीं हेरते और मुख पर मानो बीलों मन लजा की कारिख लगी रहती है ( अग्नि की लपट सीधी ऊंची नहीं जाती और मुख से कारिख निकलती है । विष्णु ने डर से लक्ष्मी को छाती में छिपा लिया (कि कहीं इन्ही को न दे डाले) और तेवीस कोटि देवों की दानशीलता