पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१३३

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प्रिया प्रकाश भेद की भेरी, बड़े डर के ढफ, कौतुक भो काले के कुरमा जूझत ही बलबीर,बजे बहु दारिद के दरबार दमा में ॥ ७६ ॥ शब्दार्थ-पखावज = मृदंग । अलोक - बदनामी, निदा । श्रावक याजा विशेष, ताशा ! भेरी डुगडुगिया । कुरमा= कुटुम्ब । दमामा-नगाड़ा। भावार्थ-राजा बीरबल के मरते ही कलि के घर में बड़ा उत्सव मनाया गया अर्थात् पाप के पखावज, शोक के शंख, झूट की झालरें, और निंदा की झांझ बजी, और अन्यान्य कुभावों के ताशों के समूह भी,वहां मैंने ढेर देखें । भेद की नग- रिया और डर के डक भी बजे, और एक बात यह भी हुई कि दरिद्र के दरबार में खुशा के नगाड़े यजे ( राजा बीर बस्न दरिद का शत्रु था, अतः उनके जूझने पर उसे भानन्द हुश्रा, अर्थात् राजा वीरबर बड़े दानी थे) छठा प्रभाव समाप्त।