पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१३६

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सातवाँ अमाव (यथा) मूल-चहूंभाग बाग वन मानहु सघन धन, सोभा की सी शाला, हंस माला सी सरित बर । ऊंचे ऊंचे अटनि पताका अति ऊंची जनु, कौशिक की कीन्ही गंगा खेलत तरल तर ॥ आपने सुखनि आगे निन्दत नरेन्द्र और, घर घर देखियत देवता से नारि नर । केशोदास त्रास जहां केवल अदृष्ट ही को, बारिये नगर और ओरछा नगर पर ॥ ५ ॥ शब्दार्थ-वभाग = चारो ओर। सरितवर - बेतवा नदी। कौशिक की कीन्ही गंगा विश्वामित्र को निकाली हुई कौशिकी नदी । अदृष्ट-प्रारब्ध कर्म । शरिये निकावर कर दीजिये। भावार्थ-सरल है। (बन वर्णन) मूल-सुरभी, इम, बन जीव बहु भूत प्रेत भय भीर । भिल्ल भवन, बल्ली विटप, दव बरनहु मतिधीर ॥६॥ शब्दार्थ-सुरमी- चमरी गाय । इभ-हाथी। दुवाशनि। (नोट) बन वर्णन में इतनी वस्तुत्रों का वर्णन करना उचित है। (यथा नूल-केशोदास ओरछे के आसपास तीसकोस तुंगारण्य नाम बन बैरी को अजीत है।