पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१४७

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सातवाँ प्रभाव सोवत तेउ सुने इनही में अनादि अनन्त अगाध है एते । अद्भुत सागर की गति देखहु सागर ही महँ सागर केते २५ शब्दार्थ-के-जल (यहां समुद्र) भावार्थ-शेष पृथ्वी को धारण किये है, पृथ्वी समुद्र और विधि रचित सब जीवों को धारण किये हैं। ऐसे ऐसे चौदह लोक समुद्रों सहित हरि के एक एक रम में हैं यह बात चित्त से समझने से जानी जाती है। समुद्र इलना अनादि अनन्त और अगाध है कि ऐसे हरि भी सुनते हैं, इसी समुद्र में सोते हैं । अतः सागर की यह अजीब गति तो देखो कि सागर ही में कितने सागर भरे पड़े हैं। मूल-भूति बिभूति पियूषहु की विष ईशशरीर कि पाप विपोहै। है कियौं केशव कश्यप को घर देव अदेवन के मन मोहै । संत हियो कि धसैं हरि संतत शोम अनन्त कहै कबि को है। चन्दन नार तरंग तरंगित नागर कोऊ कि सागर सोहै ॥ शब्दार्थ-भूति = अधिकता । विभूति-(१) धन रत्नादि (२) भस्म । ईश शरीर-महादेव की मूर्ति । पाप बिपोहै - याप को छेदन करता है । चन्दन नीर तरंगित =(१) विसे हुये चन्दन की रेखाओं से सुशोभित है शरीर जिसका (नागर के लिये ) (२) जिसके जल की तरंगे चंदन से उमड़ती हैं। (नोट) प्राचीन काल में मलयगिरि पर्वत से चंदन काट कर नदियों द्वारा समुद्र में बहा लाया जाता था और वहां से जहाजों द्वारा अन्य स्थानों को जाता था, अतः पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र में बहुत से चंदन काष्ठ उतराया करते थे।