पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१६६

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प्रिया-प्रकाश (पुरोहित वर्णन) मूल-प्रोहित नृपहित, वेदवित, सत्यशील, शुचि अंग। उपकारी, ब्रह्मण्य, रिजु, जीत्यो जगत अनंग । शब्दार्थ-वेदवितबेदज्ञ । सत्यशील सत्यवादी । ब्रह्मण्य = ब्रह्म में रत। रिजु-सरल सुभाव। जीत्यो जगत- जगत के बंधनों से मुक्त। जीत्यो अनंग काम को जीत लिया हो, जितेन्द्रिय हो। (यथा) मूल-कीन्हो पुरत मीत, लोक लोक गाये गीत, पाये जु अभूत पूत, अरि उर त्रास है। जीते जु अजीत भूप, देस देस बहुरूप, और को न केशोदास बलको बिलास है। तोरयो को धनुष, नृपगण गे विमुख, देख्यो जु बधूको मुख सुखमा को बास 1 है गये प्रसन्न राम, बाढ़ो धन धर्म धाम, केवल वशिष्ठ के प्रसाद को प्रकास है ।। १२ ।। शब्दार्थ-~-पुरहुत-इन्द्र । अभूत पूत- ऐसे पुत्र जो कभी किसी पुत्र नहीं हुए। सुखमा को पास अति सुंदर । है गये प्रसन्न राम - परशुराम भी (मो स्वभावतः बड़ेही कोधी थे) प्रसन्न होकर गये। भावार्थ-सरल और स्पष्ट है। माव केवल यह है कि रामादशरथ को जो ऐसी बातें प्राप्त हुई और राम जी जो ऐसे कार्य कर सके वह सब बशि जी की प्रसन्नता का प्रभाव है।